Tuesday, December 14, 2010

मुहब्बत हो न जाये

नज़रों से पी रहे हैं कहीं नजाकत हो जाये
तेरी नफरत से ही कहीं मुहब्बत हो जाये

नज़रें मिला के बोलोगे, तो नज़रें झुका लेंगे
झुकती नज़रों से भी कहीं इबादत हो जाये


तेरी चाहत पे नहीं हम तो तेरी नफरत पे मरते हैं
अश्कों के शराब कि कहीं आदत हो जाये

यूँ तो ज़िन्दगी में हमने हर जंग फतह कि है
जंग- -मुहब्बत में कहीं शहादत हो जाये

चाहते हैं नज़र बंद कर के ता -क़यामत तुमको देखें
नज़रें हटी और कहीं क़यामत हो ना जाये....

नज़रों से पी रहे हैं ...नजाकत हो जाये....


Tuesday, October 26, 2010

अवतार


ये कविता उस वेदना कि कोख से जन्मी है ..जो एक युवा भारतीय के ह्रदय में हर रोज उठती है ...जब वो कभी नक्सलवादियों तो कभी आतंकवादियों के हाथों में अपनी भारत माँ का आँचल देखता है...वो सालों से अपने व्यथित मन को समझा रहा है कि वो बुद्ध, महावीर और गाँधी के देश का है.....पर अब उसे एहसास हो रहा है कि अगर दूसरों का रक्त बहाना हिंसा है तो स्वयं का रक्त बहते रहने देना भी काररक्तदान नहीं हो सकता ...यदि तलवार के दम पे दुनिया को तबाह करना नपुंसकता है तो ...तो बारूद के ढेर पर बैठ कर ध्यान करते हुए अपने देश का बलात्कार देखना भी वीरता कि निशानी नहीं हो सकती... प्रस्तुत कविता युवा भारत से एक अवतार चाहती है........... जो,आतंकवाद,नक्सलवाद और ऐसे अनेक रक्तबीजों को अहिंसक और सहनशील भारत का रक्त्चरित्र भी दिखा सके......!!!

प्रस्तुत पंक्तियाँ कविता का वो अंश हैं जिसे मुझे चेतन भगत को सुनाने का मौका मिला ... उन्हें वीर रस कि ये रचना बहुत पसंद आई ...आशा है आपको भी अपने करीब प्रतीत होगीऔर हम एक नयी क्रांति कि ओर आगे बढ़ेंगे ...


अवतार


जंग लगी कृपाण मे
अब धार हमको चाहिए
कर सके उद्धार वो
अवतार हमको चाहिए .....


विष भरें हैं ये जलाशय
जल नहीं पीना अभी
काल का तांडव है जारी
छोड़ दो जीना अभी
हिल उठे यम का सिंहाशन
वो हुंकार हमको चाहिए
कर सके उद्धार वो
अवतार हमको चाहिए....

गजनबी से अजनबी तक
हर एक ने लुटा ही है
आँधियों मे बार-बार
कुनबा तेरा टुटा ही है
अब नहीं "स्वीकार" आर्यगन
"इनकार" हमको चाहिए
कर सके उद्धार वो
अवतार हमको चाहिए .....

रास्त्रधर्म का पथ दिखाने
फांसी पर कितने लटक गए
चिताओं ने किया रोशन जिसे
वो राह ही तुम भटक गए
विधवा की तराशी हुई,रक्त की प्यासी हुई
५७ में उठी वो तलवार हमको चाहिए
कर सके उद्धार वो
अवतार हमको चाहिए .....

हक़ सदा माँगा ही है
हक़ कभी छीना नही
मौज-मस्ती में,सरपरस्ती में
और अब जीना नहीं
जो चीर दे रावण की नाभि
वो वार हमको चाहिए
कर सके उद्धार वो
अवतार हमको चाहिए .....

गीता बाइबिल और कुरान
क्यों व्यर्थ में हम रट रहे
धर्म,जाति और भाषा
के नाम पे क्यों बात रहे
छोड़ सारे राग द्वेष
हो खड़ा जहाँ एक देश
युवा कंधों की अश्थियों पर
वो आधार हमको चाहिए
कर सके उद्धार वो
अवतार हमको चाहिए .....

टकरा कर चट्टानों से
अब वापस नहीं होगी लहर
क्यों बरसे न उन पर कहर
जो दे रहे हमको ज़हर
इस अमावस हिंद में
एक ज्वार हमको चाहिए
जंग लगी कृपान में
अब धार हमको चाहिए
कर सके उद्धार वो
अवतार हमको चाहिए .....

Saturday, October 16, 2010

कभी हज़ल सी ,तो कभी ग़ज़ल सी ज़िन्दगी में
प्यादे कि औकात का मोहरा है तू
फिक्र तेरी कोई जुदा नही
इंसान ही है तू कोई खुदा नहीं..

Friday, September 24, 2010

तू यही कहीं है ....

आज मेरी चाची का जन्मदिन है ....वो अब किसी बेहतर दुनिया में हैं और दुर्भाग्यवास ये जन्मदिन हम उनके भौतिक स्वरुप के साथ नहीं मना सकते.. परन्तु मैं जानता हूँ की वो जहाँ भी है ...हमे महसूस कर सकती हैं ... समस्त परिवार की तरफ से आपको जन्म दिन की हार्दिक शुभकामनायें ..चाची....
हम सब और खास कर कि माँ आपको बहुत याद करती है ...पर हम सब अच्छे हैं ..और अपने गुरु तथा ठाकुर जी से आपकी भावी यात्रा के लिए प्रार्थना करते हैं...

तू हवा बनकर आती
मेरे माथे को सहलाती
और चुपके से कह जाती-

"कुछ प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं
मत जहन में कोई सवाल रखना
जहाँ हूँ बेहतर हूँ मैं,
तुम बस अपना ख्याल रखना "


फिर अपने अश्रु धारों से
तेरे चरणों को पखारता
यादों के मोतियों से
तेरा आँचल सवांरता मैं
निकल पड़ता हूँ-

तेरा आशीष लेकर इस प्रशांत विश्व में
अपनी नवल भूमिका अदा करने

ये जान कर कि
तू नहीं है,कहीं नहीं है.......

और ये मानकर की
तू यहीं है,यहीं कहीं है .......

Happy Birth Day ...Chachi




Wednesday, September 15, 2010

वो कैसा हिन्दुस्तान है?

















विरासतों पर जहाँ गर्व नहीं
न धरोहरों का ज्ञान है
हिंदी
ही नहीं जहाँ पर

वो कैसा हिन्दुस्तान है?

जिस भाषा में पहले बोल कहे

उस भाषा से तुझे परहेज है
देश हुआ कब का आज़ाद
तू आज भी अंग्रेज है ?
क्या सभ्यता क्या संस्कृति
तू राष्ट्र-भाषा से भी अनजान है

हिंदी नहीं जहाँ पर

वो कैसा हिन्दुस्तान है?

इसी लिपि में है कामायनी

इसी लिपि में राष्ट्र गान है
हैं इसी लिपि मे महाभारत
इसमें ही वेद पुराण है
ये देवनागरी लिपि नहीं
साक्षात देवों का आह्वान है

हिंदी ही नहीं जहाँ पर
वो कैसा हिन्दुस्तान है

अब क्यों दुनिया के
सामने

इसे और विवश बता रहे हो
मनाओ जाकर पुण्यतिथि
क्यों हिंदी दिवस मना रहे हो?
पहचानते नहीं तुम उसे ही
जो असल में तुम्हारी पहचान है

हिंदी नहीं जहाँ पर

वो कैसा हिंन्दुस्तान है ?



Sunday, September 5, 2010

Wanna live the life of 1st year BIT hostel again....??



///सचमुच कमाल था वो बी का पहला साल था ///

वो पहली रात जो हमने हॉस्टल में बिताई थी
एक पाँव पर खड़े कर के जो नाच हमको नचाई थी
गालों को सहला कर सारे फंडे बताये थे
९० पे झुक कर सलाम करना सिखाये थे
पहली बार गालो का रंग यारों लाल था
सचमुच कमाल था वो बी ई का पहला साल था...:-)


कॉलेज का पहला दिन था
दिल में बड़ा अरमान था
पर लाइट शर्ट और डार्क पैंट के सिवा
सब कुछ यारों अनजान था
बंक का पुराना अनुभव था बहनों का ख़जाना था
कॉलेज से जल्दी जाना था
क्योंकि अगले दिन जल्दी आना था
आखिर उसके पीछे वाली सीट का सवाल था


सचमुच कमल था, वो बी ई क पहला साल था .....:-)

रात को अकेले में जब भूख हमे सताती थी
तो शीशमहल में बनने वाले पोहे की याद आती थी
जान हथेली पर रखकर हम पोहा खा कर आते थे
सूरज को गूड्मोर्निंग कह कर चैन से सो जाते थे
कॉलेज कैसे जाते अब तो इज्जत क सवाल था

सचमुच कमाल था वो बी ई क पहला साल था .... :-)

बिस्तर के नीचे कोई सी डी छिपाया करता था
तो अलमारी के पीछे कोई बीडी छिपाया करता था
कोई बीना माँगे सबको सलाह दिया करता था
तो कोई अकेले अंधेरों में सिगरेट पिया करता था
चार दीवारों के भीतर वो अलग ही संसार था
कुछ अलग करने का सबको भूत-सा सवार था
हर दिन होते थे हंगामे,होता हर रात को बवाल था

सचमुच कमाल था वो बी ई का पहला साल था.....:-)


और एक दिन अचानक खतरे क पैगाम आ गया
छलकती आँखों ने बताया सेमेस्टर एक्जाम आ गया
पहली बार लाइफ में भगवान् की याद आई थी
छः महीनो की पढाई छः रातों में जो समाई थी
खैर मेरा तो भगवान् ने जैक लगा दिया
पर मेरे दोस्तों का यूनिवर्सिटी ने बैक लगा दिया
अंतिम वक़्त पर दोस्तों का साथ न दे पाया
बस इसी बात क मलाल था

सचमुच कमाल था वो बी ई का पहला साल था .......:-)

Saturday, August 21, 2010

ग़ज़ल

रुखसत और उल्फत का फ़साना है ज़िन्दगी
पाकर खजाने सब गंवाना है ज़िन्दगी

रोते हुए आये थे,हम जायेंगे रुलाकर
रोते हुए काफ़िर की हँसाना है ज़िन्दगी

सफ़र ये चार पल का है न रूठ कर कटे
रूठे हुए मुशाफिर को मनाना है ज़िन्दगी

क्यों सज रहे हैं मकबरे और संगमरमर के आशियाँ
मरहूम-ऐ- मुहब्बत को दिल में बसाना है ज़िन्दगी


आज है न कल रहे,क्यों नफरतों में पल रहे
गीत रश्म-ऐ-मुहब्बत के गाना है ज़िन्दगी ...

रुखसत और उल्फत का फ़साना है ज़िन्दगी.........


Friday, June 18, 2010

मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ



थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ
कर दिया बदनाम सर-ए-आम चिट्ठियाँ
थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ.....

है रात अँधेरी और चांदनी शुरुर में
लिख रहा है चाँद तेरे नाम चिट्ठियाँ
थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ....

उल्फत का फ़साना ,था मेरा भी जमाना
लिखता था मैं भी सुबह शाम चिट्टियाँ
थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ.....

खून से लिखी है मेरे मोहब्बत की दास्ताँ
होश वाले हों बेहोश,नशीली जाम चिट्ठियाँ
थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ.....

दुनिया वाले सुन रहे हैं पर तुम खामोश हो
बेवफाई के नाम ये गुमनाम चिट्ठियाँ
थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ.....

तो क्या हुआ जो आज हैं बेकार चिट्ठियाँ
करती थी कभी मेरा हर एक काम चिट्ठियाँ
थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ.....

इस बात से है खलबली आज भी पड़ोश में
की आती थी किसकी रोज़ मेरे नाम चिट्ठियाँ
थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ.....

Saturday, June 12, 2010

जीवन सरिता

जीवन एक बहाव है ..ज़िन्दगी और नदी का सफ़र एक जैसा है.जिस तरह से नदी चट्टानों पर टकराते हुए समुन्दर तक जा पहुँचती है,उसी तरह हमे भी सारी बाधाओं को पार करते हुए पने लक्ष्य तक पहुँचाना होगा.वीर रस की मेरी यह रचना मैंने कक्षा बारहवीं में की थी, तब से आज तक ये मेरे और अन्य कई मित्रों के लिए एक उर्जा श्रोत बनी रही है... आशा है अवसाद भरे क्षणों में ये आपको जीवंत स्वर प्रदान करेगी ......

जीवन सरिता!

क्यों इतनी सुखी वीरान पड़ी है तू
माना तू रूठी- सी है
पर क्यों खुद से अनजान खड़ी है तू
क्यों सुखी वीरान पड़ी है तू ?

मानता हूँ ..अनगिनत बाधाएं हैं राहों पर
पर टिकना नहीं कभी तू अनजानी बाँहों पर
पथिक को पथ के कांटे तो सहना ही होगा
सरिता तुझे उस सागर तक तो बहना ही होगा

तू तो चंद चट्टानों से ही काटना चाहती है
इतनी जल्दी अपने पथ से हटना चाहती है?
ज़रा याद कर अपने इतिहास को
तेरी गरिमा पर हुए उपहास को

फिर चीर दे पर्वत का सीना
सिखला दे मुर्दों को जीना
दिखला दे तू प्रपात रूप
ये तुच्छ निशा, ये तुच्छ धूप

सरिता तू सब जानकार अनजान है
याद दिला दूँ तुझको-ये जीवन एक संग्राम है
तो अवसाद का नाश कर मेरा विश्वास कर
एक महान क्रांति की अनजान कड़ी है तू
क्यों सूखी वीरान पड़ी है तू...
क्यों खुद से अनजान खड़ी है तू?

जीवन सरिता!
जीवन सरिता......