थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ
कर दिया बदनाम सर-ए-आम चिट्ठियाँ
थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ.....
है रात अँधेरी और चांदनी शुरुर में
लिख रहा है चाँद तेरे नाम चिट्ठियाँ
थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ....
उल्फत का फ़साना ,था मेरा भी जमाना
लिखता था मैं भी सुबह शाम चिट्टियाँ
थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ.....
खून से लिखी है मेरे मोहब्बत की दास्ताँ
होश वाले हों बेहोश,नशीली जाम चिट्ठियाँ
थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ.....
दुनिया वाले सुन रहे हैं पर तुम खामोश हो
बेवफाई के नाम ये गुमनाम चिट्ठियाँ
थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ.....
तो क्या हुआ जो आज हैं बेकार चिट्ठियाँ
करती थी कभी मेरा हर एक काम चिट्ठियाँ
थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ.....
इस बात से है खलबली आज भी पड़ोश में
की आती थी किसकी रोज़ मेरे नाम चिट्ठियाँ
थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ.....
Kya khoob kah hai aapne......jaise ye chithhiyan na hon......khud dakiya hi hon.....jo dil ki aawaj ko khud padhkar nirakshar pathako ko suna rahi ho.
ReplyDeletekavita RAGATMAK hai......... words combination achhe hain..expression lajawab hai..... paani me kamal k patton jaisi khoobsurti hai... keep it up!
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ReplyDelete:> :)
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