Friday, June 18, 2010

मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ



थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ
कर दिया बदनाम सर-ए-आम चिट्ठियाँ
थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ.....

है रात अँधेरी और चांदनी शुरुर में
लिख रहा है चाँद तेरे नाम चिट्ठियाँ
थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ....

उल्फत का फ़साना ,था मेरा भी जमाना
लिखता था मैं भी सुबह शाम चिट्टियाँ
थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ.....

खून से लिखी है मेरे मोहब्बत की दास्ताँ
होश वाले हों बेहोश,नशीली जाम चिट्ठियाँ
थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ.....

दुनिया वाले सुन रहे हैं पर तुम खामोश हो
बेवफाई के नाम ये गुमनाम चिट्ठियाँ
थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ.....

तो क्या हुआ जो आज हैं बेकार चिट्ठियाँ
करती थी कभी मेरा हर एक काम चिट्ठियाँ
थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ.....

इस बात से है खलबली आज भी पड़ोश में
की आती थी किसकी रोज़ मेरे नाम चिट्ठियाँ
थी कभी मोहब्बत-ए-पैगाम चिट्ठियाँ.....

4 comments:

  1. Kya khoob kah hai aapne......jaise ye chithhiyan na hon......khud dakiya hi hon.....jo dil ki aawaj ko khud padhkar nirakshar pathako ko suna rahi ho.

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  2. kavita RAGATMAK hai......... words combination achhe hain..expression lajawab hai..... paani me kamal k patton jaisi khoobsurti hai... keep it up!

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