जेठ की धूप सी तू कभी
जलती,जलाती, तडपती ,तडपाती
मुहब्बत की हर बूँद को तरसाती
और कभी सावन के बादल की तरह
अपना सब कुछ निःस्वार्थ बरसाती
क्यूँ बरसी तू कि रग -रग में बह गयी
जो जुबान से न कह सकी
तेरी खामोशियाँ कह गयी
ज़मीन पे पड़े धुल कि तरह ही सही
पर तेरे प्रेम जल में मिल चूका हूँ मैं
ये फर्क कैसे करूँ कि -
तू मेरी या मैं तेरा ?
तय कर लिया है कि
जो पहुंचा तो तेरे साथ ही
पहुंचूंगा समुन्दर तक
या फिर विरह के जेठ में
बूँद बूँद फिर से बादल होगी
और जर्रा-जर्रा , धुल-धुल पुकारेगी उसे
तरस के अनेक होने के लिए
बरस के एक होने के लिए ....
मुहब्बत की हर बूँद को तरसाती
और कभी सावन के बादल की तरह
अपना सब कुछ निःस्वार्थ बरसाती
क्यूँ बरसी तू कि रग -रग में बह गयी
जो जुबान से न कह सकी
तेरी खामोशियाँ कह गयी
ज़मीन पे पड़े धुल कि तरह ही सही
पर तेरे प्रेम जल में मिल चूका हूँ मैं
ये फर्क कैसे करूँ कि -
तू मेरी या मैं तेरा ?
तय कर लिया है कि
जो पहुंचा तो तेरे साथ ही
पहुंचूंगा समुन्दर तक
या फिर विरह के जेठ में
बूँद बूँद फिर से बादल होगी
और जर्रा-जर्रा , धुल-धुल पुकारेगी उसे
तरस के अनेक होने के लिए
बरस के एक होने के लिए ....